नमस्कार दोस्तों आज हम बात करने वाले है , की वास्तव में जीवन में सफलता के सूत्र क्या है और अपने जीवन में सफलता पाने के तरीके क्या है।
जीवन में सफलता की चाहत स्वाभाविक है , लेकिन सही माने में हम कितना सफल हैं यह प्रश्न विचारणीय है । उस सफलता को क्या कहा जाए , जो अंदर से खालीपन और निरर्थकता के भाव से आक्रांत हो । उस सफलता के क्या माने , जो उपलब्धियों के शिखर पर भी शांति – सुकून से रिक्त हो ।
जीवन में सफलता के सूत्र – जीवन में सफलता पाने के तरीके
आज जब सफलता की बुलंदियों पर भी लोगों को नशे की जकड़न में देखा जाता है , अवसादग्रस्त पाया जाता है , आत्महत्या जैसे वीभत्स कृत्य को अंजाम देते देखा जाता है , तो ऐसी सफलता पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं ।
क्या शांति – सुकून और प्रसन्नता से रहित सफलता ही जीवन की नियति है ? इस कीमत पर मिली सफलता को – समग्र सफलता नहीं कहा जा सकता । सफलता की प्रासंगिकता बौद्धिक विकास के साथ भावनात्मक , नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान में निहित है । प्रस्तुत हैं कुछ जीवन में सफलता के सूत्र , जिनको धारण करते हुए हम सर्वांगीण सफलता के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं ।
अपनी वास्तविकता को समझे –
समझें अपनी वास्तविकता , अपनाएँ सफलता का राजमार्ग – ठोस सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता , बल्कि इसका अपना राजमार्ग होता है , जिसे उचित कीमत चुकाकर प्राप्त किया जाता है । फिर मुफ्त में यहाँ कुछ मिलता भी नहीं और यदि मिल भी जाए तो उसका कोई विशेष मूल्य नहीं होता ।
न ही इसमें सार्थकता का बोध होता है , न ही ऐसे में गौरव का भाव पनपता है और न ही आत्मविश्वास विकसित होता है । ऐसे खालीपन में शांति सुकून के प्रसून कैसे खिल सकते हैं ? यह आवश्यक है कि जीवन में हम जो कुछ करना * चाहते हैं वह अंत : प्रेरित हो ।
अपना लक्ष्य स्वयं निर्धारित करे –
यदि लक्ष्य दूसरों के कहने पर या देखा – देखी में निर्धारित किया गया है तो उस पर एक बार गंभीरता से विचार कर लें । यह लक्ष्य रोजी – रोटी तो दे सकता है , लोगों की नजर में सफलता का एहसास भी दे सकता है , लेकिन आंतरिक सुकून – संतोष नहीं ; क्योंकि यह तो , अपनी मौलिकता के गर्भ से उपजे लक्ष्य के आधार पर ही संभव – सुनिश्चित होता है ।
जीवन में जिन्होंने भी दुनिया को कुछ सार्थक दिया , उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण किया । इसके लिए कई बार तो उन्हें अपने परिवारजनों , प्रिय मित्रों एवं शुभचिंतकों की छोटी सोच का कोपभाजन भी बनना पड़ा है , लेकिन जब वे इस पर डटे रहे तो अंत में दुनिया ने उनका लोहा माना और अंततः वे भी उस पथ के अनुगामी बन गए । इसी के साथ अपने दैनिक कर्त्तव्य – कर्मों के साथ जीवनलक्ष्य को मूर्तरूप देने के लिए कार्यों की प्राथमिकताओं का निर्धारण आवश्यक है ।
अपने रोज के Priority को समझे –
दैनिक प्राथमिकताएँ ( Priorities ) हों सुस्पष्ट – जीवन की प्राथमिकताएँ जितनी स्पष्ट होंगी , जीवन उतना ही प्रभावी बनता जाएगा । जीवन में विफलता एवं तनाव का एक बड़ा कारण प्राथमिकताओं का स्पष्ट न होना भी होता है । इसके चलते समय यों ही बरबाद होता रहता है तथा अस्त – व्यस्तता जीवन का अंग बनती जाती हैं । यह एक तथ्य है कि जीवनलक्ष्य जितना स्पष्ट होगा , दैनिक प्राथमिकताएँ भी उतनी ही स्पष्ट होंगी ।
ऐसे में शरीर , मन व अंत : करण की समस्त ऊर्जा एक बिंदु पर केंद्रित हो जाती है व कार्य भी उतनी ही तीव्रता से मूर्तरूप लेता है । लक्ष्य के स्पष्ट न होने पर यही समझ नहीं आता है कि क्या महत्त्वपूर्ण है और क्या नहीं । समय गैरजरूरी कार्यों में नष्ट होता रहता है और जब परीक्षा की घड़ी आती है तो महत्त्वपूर्ण कार्य अधूरे ही रह जाते हैं । ऐसे में कार्य का दबाव जीवन को तनावग्रस्त बना देता है
मन की स्थिरता – शांति विलुप्त हो जाती है और जीवन में जैसे आपात्काल लागू हो जाता है । प्राथमिकताओं के आधार पर किया गया कार्य ऐसी आपात् स्थिति को पनपने का अवसर ही नहीं देता और व्यक्ति की रचनात्मकता के लिए सशक्त आधार प्रस्तुत करता है ।
क्रिएटिव बने अपने जीवन में
रचनात्मकता ( क्रिएटिविटी ) बने जीवन का अभिन्न अंग – दैनिक कर्त्तव्यकर्मों के सम्यक निर्वाह के साथ व्यवस्थित होती दिनचर्या के साथ वह आधार तैयार होता है कि कुछ क्रिएटिव कामो को अंजाम दिया जा सके ; जबकि जीवन के तनाव , भाग – दौड़ के बीच यह संभव नहीं हो पाता । मन के संतुलन – स्थिरता की न्यूनतम अवस्था की इसके लिए जरूरत होती है ।
जीवन के व्यवस्थित होते ही ऐसी मन : स्थिति बनती है और कार्यक्षेत्र में ऐसा वातावरण भी । ऐसे में रचनात्मकता का स्रोत अंदर से स्वत : ही फूट पड़ता है । जीवन में अपनी रुचि , योग्यता एवं प्रतिभा के अनुरूप रचनात्मकता की अभिव्यक्ति ऐसे में जीवन को एक लय , संगीत एवं गहरी संतुष्टि के भाव से आप्लावित कर देते हैं । यदि व्यावहारिक पक्ष संतुलित नहीं है और भावनात्मक विक्षोभ जीवन को आक्रांत किए हुए है तो इसमें व्यवधान आ सकता है ।
भावनात्मक संतुलन को भी साधे –
भावनात्मक संतुलन को भी साधे – समाज समुदाय से कटी एकाकी सफलता को कभी भी पूरा नहीं है माना जा सकता । सफलता तभी सार्थकता की अनुभूति से : भरी होगी , जब इसमें अपने उत्कर्ष के साथ व्यापक समूह का भी हित सधता हो । एक सफल जीवन के लिए व्यावहारिक रूप से संतुलित जीवन का होना जरूरी है ।
बाहरी सफलता , प्रतिभा के स्फोट के साथ आंतरिक भावनात्मक सिंचन भी आवश्यक है , जो जीवन को एक गहरी संतुष्टि का भाव देता हो । इसके लिए आवश्यक है कि अपना ही हित – स्वार्थ न सोचें , बल्कि साथ ही अपने आश्रितों व परिवेश – समाज के हित का भी विचार करें । लोगों से मिलने पर अपनी ही बात न कहें , दूसरों की बात भी सुनें ।
व्यवहार में एक अच्छा श्रोता होना बहुत बड़ा गुण है । ऐसा संवेदनशील व्यवहार अशांत – क्लांत चित्त पर मलहम का काम करता है और साथ ही अपना भी भावनात्मक विकास करता है । दूसरों के लिए हम कितने उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं , यह माने रखता है । अपने साथ – साथ दूसरे के प्रति हम कितने संवेदनशील व ईमानदार हैं , यह भावनात्मक विकास को सुनिश्चित करता है और साथ – ही – साथ सार्वजनिक जीवन में विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को भी विकसित करता है । एक समग्र – सफल जीवन का यह महत्त्वपूर्ण आधार है ।
आध्यात्मिक पक्ष का भी रखें ध्यान
भावनात्मक विकास बहुत कुछ अहंकार व मोह – आसक्ति के दायरे में हो सकता है । इसको और व्यापक एवं गहन आयाम देने के लिए यह जरूरी है कि हम अपने स्वार्थ अहं के दायरे से परे आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करें । यह जैसे अपने गहनतम हिस्से में गोता लगाने जैसा है ,
जीवन के व्यापकतम आकाश उड़ान भरने के समान है , जो नित्य कुछ पल के आत्मचिंतन मनन के साथ शुरू होता है , आध्यात्मिक महापुरुषों के सत्संग एवं स्वाध्याय के साथ पुष्पित – पल्लवित होता है । निष्काम सेवा एवं प्रार्थना – ध्यान के साथ इसमें गहराई आती है और जीवन गहनतम स्तर पर संतुलन – स्थिरता की ओर बढ़ता है ।
पराचेतना से जुड़ने पर अकेले ही सारे संसार का सामना करने की शक्ति व्यक्ति में आ जाती है । जीवन के प्रति एक गहन अंतर्दृष्टि का विकास होता है , जिसके आधार पर लिए गए निर्णय अचूक साबित होते हैं ।
जीवन को होशोहवास में जिए
स्वयं को -जीवन में सफलता – संतुलन के लिए नियमित रूप से उपरोक्त कसौटियों पर स्वयं को कसते रहना आवश्यक है । दिन भर अपने विचारों , व्यवहारों , भावों , संकल्पों के प्रति सजग रहें और अपने विवेक को धार देते रहें । दिन भर होशोहवास में जिएँ ।
दिन भर की समीक्षा के लिए रात को डायरी लेखन का क्रम बनाएँ । दिन भर में हुई भूल – चूकों को सुधारने व अगले दिन नया करने का संकल्प लें । रोज नई कसौटी व कठिन परीक्षाओं के चुनौतीपूर्ण दौर को पार करते हुए जीवन उत्कर्ष की नित नवीन सीढ़ियों का आरोहण करते रहें ।
अंदर की आवाज को सुने
आत्मा की आवाज का करें अनुसरण – सबसे सर्वोपरि है अंतर्वाणी का अनुसरण । यह हृदय के गहनतम केंद्र से उभरती है । यह प्रत्यक्ष ईश्वरीय वाणी है । यह इतनी कोमल होती है कि आसानी से दबायी जा सकती है , लेकिन इतनी स्पष्ट होती है कि इसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । अनुसरण न करने पर यह कुंद पड़ती जाती है और अनुसरण करने पर यह बलवती होती जाती है । व्यक्ति की संवेदनशीलता बढ़ती जाती है , विवेक का प्रकाश प्रखर होता है ।
अंतिम शब्द
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