चाणक्य नीति : प्रथम अध्याय – Chanakya Niti In Hindi

चाणक्य नीति : प्रथम अध्याय – Chanakya Niti In Hindi

किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए । धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए , परंतु स्त्रियों और धन से भी आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं की रक्षा करे ।

प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम् ।

नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम् ।।

भावार्थ = मैं तीनों लोकों — पृथ्वी , अन्तरिक्ष और पाताल के स्वामी सर्वशक्तिमान , सर्वव्यापक परमेश्वर विष्णु को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं । प्रभु को प्रणाम करने के बाद मैं अनेक शास्त्रों से एकत्रित किए गए राजनीति से संबंधित ज्ञान का वर्णन करूंगा

व्याख्या = प्राचीनकाल से हमारी यह परंपरा रही है कि ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए ग्रंथकार अपने आराध्य का स्मरण अवश्य करता है । इसे ‘ मंगलाचरण ‘ कहा जाता है । आचार्य चाणक्य ने भी सर्वशक्तिमान प्रभु विष्णु को नमन करके इस ग्रंथ की रचना की है । विदित हो कि श्रीविष्णु पालनकर्ता हैं और ‘ नीति ‘ का प्रयोजन भी व्यक्ति और समाज की व्यवस्था देना है । चाणक्य ने अपने इस ग्रन्थ को राजनीति से संबंधित ज्ञान का उत्तम संग्रह बताया है । इसी संग्रह को बाद में विद्वानों और जन – सामान्य ने ‘ चाणक्य नीति ‘ का नाम दिया ।

अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः ।

धर्मोपदेशविख्यातं कार्याकार्य शुभाशुभम् ।।

भावार्थ = सत्तमः ‘ अर्थात श्रेष्ठ पुरुष ,इस शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यह बात भली प्रकार जान जाएंगे कि वेद आदि धर्मशास्त्रों में कौन से कार्य करने योग्य बताए गए हैं और कौन से कार्य ऐसे हैं जिन्हें नहीं करना चाहिए । क्या पुण्य है और क्या पाप है तथा धर्म और अधर्म क्या है , इसकी जानकारी भी इस ग्रंथ से हो जाएगी ।

मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि कुछ भी करने से पूर्व उसे इस बात का ज्ञान हो कि वह कार्य करने योग्य है या नहीं , उसका परिणाम क्या होगा ? पुण्य कार्य और पाप कर्म क्या हैं ? श्रेष्ठ मनुष्य ही वेद आदि धर्मशास्त्रों को पढ़कर भले – बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकते यहां यह बात जान लेना भी आवश्यक है कि धर्म और अधर्म क्या है ? इसके निर्णय में , प्रथम दृष्टि में धर्म की व्याख्या के अनुसार किसी के प्राण लेना अपराध है और अधर्म भी , परंतु लोकाचार और नीतिशास्त्र के अनुसार विशेष परिस्थितियों में ऐसा किया जाना धर्म के विरुद्ध नहीं माना जाता , पापी का वध और अपराधी को दंड देना इसी श्रेणी में आते हैं । श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा दी , उसे इसी विशेष संदर्भ में धर्म कहा जाता है ।

तदहं सम्प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।

येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते ।।

भावार्थ – अब मैं मानवमात्र के कल्याण की कामना से राजनीति के उस ज्ञान का वर्णन करूंगा जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ।

चाणक्य कहते हैं कि इस ग्रंथ को पढ़कर कोई भी व्यक्ति दुनियादारी और राजनीति की बारीकियां समझकर सर्वज्ञ हो जाएगा । यहां ‘ सर्वज्ञ ‘ से चाणक्य का अभिप्राय ऐसी बुद्धि प्राप्त करना है जिससे व्यक्ति में समय के अनुरूप प्रत्येक परिस्थिति में कोई भी निर्णय होने की क्षमता आ आए । जानकार होने पर भी यदि समय पर निर्णय नहीं लिया , तो जानना समझना सब व्यर्थ है । अपने हितों की रक्षा भी तो तभी सम्भव है । मू

र्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभरणेन च ।

दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति ।।

मूर्ख शिष्य को उपदेश देने , दुष्ट – व्यभिचारिणी स्त्री का पालन – पोषण करने , धन के नष्ट होने तथा दुखी व्यक्ति के साथ व्यवहार रखने से बुद्धिमान व्यक्ति को भी कष्ट उठाना पड़ता है ।

चाणक्य कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान देने से कोई लाभ नहीं होता , अपितु सज्जन और बुद्धिमान लोग उससे हानि ही उठाते हैं । उदाहरण के लिए बया और बंदर की कहानी पाठकों को याद होगी । मूर्ख बंदर को घर बनाने की सलाह देकर बया को अपने घोंसले से ही हाथ धोना पड़ा था । इसी प्रकार दुष्ट और कुलटा स्त्री का पालन – पोषण करने से सज्जन और बुद्धिमान व्यक्तियों को दुख ही प्राप्त होता है ।

स्वभाव दुखी व्यक्तियों से व्यवहार रखने से चाणक्य का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अनेक रोगों से पीड़ित हैं और जिनका धन नष्ट हो चुका है , ऐसे व्यक्तियों से किसी प्रकार का संबंध रखना बुद्धिमान मनुष्य के लिए हानिकारक हो सकता है । अनेक रोगों का तात्पर्य संक्रामक रोग से है । बहुत से लोग संक्रामक रोगों से ग्रस्त होते हैं , उनकी संगति से स्वयं रोगी होने का अंदेशा रहता है । जिन लोगों का धन नष्ट हो चुका हो अर्थात जो दिवालिया हो गए हैं , उन पर एकाएक विश्वास करना कठिन होता है । दुखी का अर्थ विषादग्रस्त व्यक्ति से भी है । ऐसे लोगों का दुख से उबरना बहुत कठिन हो जाता है और प्रायः असफलता ही हाथ लगती है । जो वास्तव में दुखी है और उससे उबरना चाहता है , उसका सहयोग करना चाहिए । क्योंकि दुखी से तो स्वार्थी ही बचता है ।

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः ।

ससर्प च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः ।।

दुष्ट स्वभाव वाली , कठोर वचन बोलने वाली , दुराचारिणी स्त्री और धूर्त , दुष्ट वाला मित्र , सामने बोलने वाला मुंहफट नौकर और ऐसे घर में निवास जहां सांप के होने की संभावना हो , ये सब बातें मृत्यु के समान हैं ।

जिस घर में दुष्ट स्त्रियां होती हैं , वहां गृहस्वामी की स्थिति किसी मृतक के समान ही होती है , क्योंकि उसका कोई वश नहीं चलता और भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए वह मृत्यु की ओर सरकता रहता है । इसी प्रकार दुष्ट स्वभाव वाला मित्र भी विश्वास के योग्य नहीं होता , न जाने कब धोखा दे दे । जो नौकर अथवा आपके अधीन काम करने वाला कर्मचारी उलटकर आपके सामने जवाब देता है , वह कभी भी आपको असहनीय हानि पहुंचा सकता है , ऐसे सेवक के साथ रहना अविश्वास के चूंट पीने के समान है । इसी प्रकार जहां सांपों का वास हो , वहां रहना भी खतरनाक है । न जाने कब सर्पदंश का शिकार होना पड़ जाए ।

आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद्धनैरपि ।

आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि ।।

किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए और धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए , परंतु स्त्रियों और धन से भी अधिक आवश्यक यह है कि व्यक्ति अपनी रक्षा करे ।

बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह आपत्ति अथवा बुरे दिनों के लिए थोड़ा – थोड़ा धन बचाकर उसकी रक्षा करे अर्थात धन का संग्रह करे । समय पड़ने पर संचित धन से भी अधिक अपनी पत्नी की रक्षा करना आवश्यक है क्योंकि पत्नी जीवनसंगिनी है । बहुत से ऐसे अवसर होते हैं , जहां धन काम नहीं आता , वहां जीवनसाथी काम आता है । इसी संदर्भ में वृद्धावस्था में पत्नी की अहम् भूमिका होती है । चाणक्य का विचार यह भी है कि धन और स्त्री से भी अधिक व्यक्ति को अपनी रक्षा करनी चाहिए अर्थात व्यक्ति का महत्व इन दोनों से अधिक है । यदि व्यक्ति का अपना ही नाश हो गया तो धन और स्त्री का प्रयोजन ही क्या रह जाएगा , इसलिए व्यक्ति के लिए धन – संग्रह और स्त्री रक्षा की अपेक्षा समय आने पर अपनी रक्षा करना अधिक महत्वपूर्ण है । देखने में आया है और उपनिषद् के ऋषि भी कहते हैं कि कोई किसी से प्रेम नहीं करता , सब स्वयं से ही प्रेम करते हैं

आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति ।

आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः ।

कदाचिच्चलिता लक्ष्मीः सञ्चितोऽपि विनश्यति ।।

आपत्तिकाल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए , लेकिन सज्जन पुरुषों के पास विपत्ति का क्या काम । और फिर लक्ष्मी तो चंचला है , वह संचित करने पर भी नष्ट हो जाती है

चाणक्य का कहना है , मनुष्य को चाहिए कि वह आपत्तिकाल के लिए धन का संग्रह करे । लेकिन धनी व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि उनके लिए आपत्तियों का कोई महत्व नहीं है , क्योंकि वे अपने धन से सभी आपत्तियों से बच सकते हैं , परंतु वे यह नहीं जानते कि लक्ष्मी भी चंचल है । किसी भी समय वह मनुष्य को छोड़कर जा सकती है , ऐसी स्थिति में यह इकट्ठा किया हुआ धन भी किसी समय नष्ट हो सकता है ।

यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः ।

न च विद्याऽऽगमः कश्चित् तं देशं परिवर्जयेत् ।।

जिस देश में आदर – सम्मान नहीं और न ही आजीविका का कोई साधन है , जहां कोई बंधु – बांधव , रिश्तेदार भी नहीं तथा किसी प्रकार की विद्या और गुणों की प्राप्ति की संभावना भी नहीं , ऐसे देश को छोड़ ही देना चाहिए । ऐसे स्थान पर रहना उचित नहीं ।

किसी अन्य देश अथवा किसी अन्य स्थान पर जाने का एक प्रयोजन यह होता है कि वहां जाकर कोई नयी बात , नयी विद्या , रोजगार और नया गुण सीख सकेंगे , परंतु जहां इनमें से किसी भी बात की संभावना न हो , ऐसे देश या स्थान को तुरंत छोड़ देना चाहिए ।

श्रोत्रियो धनिकः राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः ।

पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत् ।।

जहां श्रोत्रिय अर्थात वेद को जानने वाला ब्राह्मण , धनिक , राजा , नदी और वैद्य ये पांच चीजें न हों , उस स्थान पर मनुष्य को एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ।

धनवान लोगों से व्यापार की वृद्धि होती है । वेद को जानने वाले ब्राह्मण धर्म की रक्षा करते हैं । राजा न्याय और शासन – व्यवस्था को स्थिर रखता है । जल तथा सिंचाई के लिए नदी आवश्यक है जबकि रोगों से छुटकारा पाने के लिए वैद्य की आवश्यकता होती है । चाणक्य कहते हैं कि जहां पर ये पांचों चीजें न हों , उस स्थान को त्याग देना ही श्रेयस्कर है ।

लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता ।

पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तत्र संस्थितिम् ।।

जहां लोकयात्रा अर्थात जीवन को चलाने के लिए आजीविका का कोई साधन न हो , व्यापार आदि विकसित न हो , किसी प्रकार के दंड के मिलने का भय न हो , लोकलाज न हो , व्यक्तियों में शिष्टता , उदारता न हो अर्थात उनमें दान देने की प्रवृत्ति न हो , जहां ये पांच चीजें विद्यमान न हों , वहां व्यक्ति को निवास नहीं करना चाहिए ।

जानीयात् प्रेषणे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनाऽऽगमे ।

मित्रं चापत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ।।

काम लेने पर नौकर – चाकरों की , दुख आने पर बंधु – बांधवों की , कष्ट आने पर मित्र की तथा धन नाश होने पर अपनी पत्नी की वास्तविकता का ज्ञान होता है ।

चाणक्य कहते हैं कि जब सेवक ( नौकर ) को किसी कार्य पर नियुक्त किया जाएगा तभी पता चलेगा कि वह कितना योग्य है । इसी प्रकार जब व्यक्ति किसी मुसीबत में फंस जाता है तो उस समय भाई – बंधु और रिश्तेदारों की परीक्षा होती है । मित्र की पहचान भी विपत्ति के समय ही होती है । इसी प्रकार धनहीन होने पर पत्नी की वास्तविकता का पता चलता है कि उसका प्रेम धन के कारण था या वास्तविक ।

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु – संकटे ।

राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः ।।

किसी रोग से पीड़ित होने पर , दुख आने पर , अकाल पड़ने पर , शत्रु की ओर से संकट आने पर , राज सभा में , श्मशान अथवा किसी की मृत्यु के समय जो व्यक्ति साथ नहीं छोड़ता , वास्तव में वही सच्चा बन्धु माना जाता है ।

व्यक्ति के रोग शय्या पर पड़े होने अथवा दुखी होने , अकाल पड़ने और शत्रु द्वारा किसी भी प्रकार का संकट पैदा होने , किसी मुकदमे आदि में फंस जाने और मरने पर जो व्यक्ति श्मशान घाट तक साथ देता है , वही सच्चा बन्धु ( अपना ) होता है अर्थात ये अवसर ऐसे होते हैं जब सहायकों की आवश्यकता होती है । प्रायः यह देखा जाता है कि जो किसी की सहायता करता है , उसको ही सहायता मिलती है । जो समय पर किसी के काम नहीं आता , उसका साथ कौन देगा ?

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिसेवते ।

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि ।।

जो मनुष्य निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के पीछे भागता है , उसका कार्य या पदार्थ नष्ट हो जाता है ।

चाणक्य कहते हैं कि लोभ से ग्रस्त होकर व्यक्ति को हाथ – पांव नहीं मारने चाहिए बल्कि जो भी उपलब्ध हो गया है , उसी में सन्तोष करना चाहिए । जो व्यक्ति आधी छोड़कर पूरी के पीछे भागते हैं , उनके हाथ से आधी भी निकल जाती है ।

वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम् ।

रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले ।।

बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुई कुरूप अर्थात् सौंदर्यहीन कन्या से भी विवाह कर ले , परन्तु नीच कुल में उत्पन्न हुई सुंदर कन्या से विवाह न करे । वैसे विवाह अपने समान कुल में ही करना चाहिए ।

आचार्य चाणक्य ने यह बहुत सुंदर बात कही है । शादी – विवाह के लिए सुंदर कन्या देखी जाती है । सुंदरता के कारण लोग न कन्या के गुणों को देखते हैं , न उसके कुल को । ऐसी कन्या से विवाह करना सदा ही दुखदायी होता है , क्योंकि नीच कुल की कन्या के संस्कार भी नीच ही होंगे ।

उसके सोचने , बातचीत करने या उठने – बैठने का स्तर भी निम्न होगा , जबकि उच्च और श्रेष्ठ कुल की कन्या का आचरण अपने कुल के अनुसार होगा , भले ही वह कन्या करूप व सौंदर्यहीन हो । वह जो भी कार्य करेगी , उससे अपने कूल का मान ही बढ़ेगा और सदा अपने समान कुल में ही करना उचित होता है , अपने से नीच कुल में नहीं । यहां ‘ कुल ‘ से तात्पर्य धन – संपदा से नहीं , परिवार के चरित्र से है ।

नखीनां च नदीनां च शृंगीणां शस्त्रपाणिनाम् ।

विश्वासो नैव कर्तव्यो स्त्रीषु राजकुलेषु च ।।

‘ नखीनाम् ‘ अर्थात बड़े – बड़े नाखूनों वाले शेर और चीते आदि प्राणियों , विशाल नदियों , ‘ शृंगीणाम् ‘ अर्थात बड़े – बड़े सींग वाले सांड़ आदि पशुओं , शस्त्र धारण करने वालों , स्त्रियों तथा राजा से संबंधित कुल वाले व्यक्तियों का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए ।

बड़े – बड़े नाखूनों वाले हिंसक प्राणी से बचकर रहना चाहिए , न जाने वे कब आपके ऊपर हमला कर दें । जिन नदियों के पुश्ते अथवा तट पक्के नहीं , उन पर इसलिए विश्वास नहीं किया जा सकता कि न जाने उनका वेग कब प्रचंड रूप धारण कर ले और कब उनकी दिशा बदल जाए , न जाने वे और किधर को बहना प्रारंभ कर दें । इसलिए प्राय : नदियों के किनारे रहने वाले लोग सदैव उजड़ते रहते हैं ।

बड़े – बड़े सींग वाले सांड़ आदि पशुओं का भी भरोसा नहीं है , कौन जाने उनका मिजाज कब बिगड़ जाए । जिसके पास तलवार आदि कोई हथियार है , उसका भी भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि वह छोटी – सी बात पर क्रोध में आकर कभी भी आक्रामक हो सकता है ।

चंचल स्वभाव वाली स्त्रियों पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए । वह अपनी चतुरता से कभी भी आपके लिए प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा कर सकती हैं । इस तरह के कई उदाहरण प्राचीन ग्रंथों में मिल जाएंगे । राजा से संबंधित राजसेवकों और राजकुल व्यक्तियों पर भी विश्वास करना उचित नहीं । वे कभी भी राजा के कान भरकर अहित करवा सकते हैं । इसी के साथ वे राज नियमों के प्रति समर्पित और निष्ठावान् होते हैं । राजहित उनके लिए प्रमुख होता है – संबंध नहीं ।

विषादप्यमृतं ग्राह्यममेधयादपि काञ्चनम् ।

नीचादप्युत्तमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ।।

विष में भी यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए । अपवित्र और अशुद्ध वस्तुओं में भी यदि सोना अथवा मूल्यवान वस्तु पड़ी हो तो वह भी उठा लेने के योग्य होती है । यदि नीच मनुष्य के पास कोई अच्छी विद्या , कला अथवा गुण है तो उसे सीखने में कोई हानि नहीं । इसी प्रकार दुष्ट कुल में उत्पन्न अच्छे गुणों से युक्त स्त्री रूपी रत्न को ग्रहण कर लेना चाहिए ।

इस श्लोक में आचार्य गुण ग्रहण करने की बात कर रहे हैं । यदि किसी नीच व्यक्ति के पास कोई उत्तम गुण अथवा विद्या है तो वह विद्या उससे सीख लेनी चाहिए अर्थात व्यक्ति को सदैव इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि जहां से उसे किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति हो , अच्छे गुणों और कला को सीखने का अवसर प्राप्त हो तो उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए । विष में अमृत और गंदगी में सोने से तात्पर्य नीच के पास गुण से है ।

स्त्रीणां द्विगुण आहारो बुद्धिस्तासां चतुर्गुणा ।

साहसं षड्गुणं चैव कामोऽष्टगुण उच्यते ।।

पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का आहार अर्थात भोजन दोगुना होता है , बुद्धि चौगुनी , साहस छह गुना और कामवासना आठ गुना होती है । ।।17 ।। आचार्य ने इस श्लोक द्वारा स्त्री की कई विशेषताओं को उजागर किया है । स्त्री के ये ऐसे पक्ष हैं , जिन पर सामान्य रूप से लोगों की दृष्टि नहीं जाती ।

भोजन की आवश्यकता स्त्री को पुरुष की अपेक्षा इसलिए ज्यादा है , क्योंकि उसे पुरुष की तुलना में शारीरिक कार्य ज्यादा करना पड़ता है । यदि इसे प्राचीन संदर्भ में भी देखा जाए , तो उस समय स्त्रियों को घर में कई ऐसे छोटे – मोटे काम करने होते थे , जिनमें ऊर्जा का व्यय होता था ।

आज के परिवेश में भी स्थिति लगभग वही है । शारीरिक बनावट , उसमें होने वाले परिवर्तन और प्रजनन आदि ऐसे कार्य हैं , जिसमें क्षय हुई ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए स्त्री को अतिरिक्त पौष्टिकता की आवश्यकता होती है । इस सत्य की जानकारी न होने के कारण , बल्कि व्यवहार में इसके विपरीत आचरण होने के कारण , बालिकाओं और स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा कुपोषण का शिकार होना पड़ता है ।

बुद्धि का विकास समस्याओं को सुलझाने से होता है । इस दृष्टि से भी स्त्रियों को परिवार के सदस्यों और उसके अलावा भी कई लोगों से व्यवहार करना पड़ता है । इससे उनकी बुद्धि अधिक पैनी होती है , छोटी – छोटी बातों को समझने की दृष्टि का विकास होता तथा विविधता का विकास होता है ।

आज के संदर्भ में इस क्षमता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । भावना प्रधान होने के कारण स्त्री में साहस की उच्च मात्रा का होना स्वाभाविक है । पशु – पक्षियों की मादाओं में भी देखा गया है कि अपनी संतान की रक्षा के लिए वे अपने से कई गुना बलशाली के सामने लड़ – मरने के लिए डट जाती हैं । काम का आठ गुना होना , पढ़ने – सुनने में अटपटा लगता है लेकिन यह संकेत करता है कि हमने काम के रूप – स्वरूप को सही प्रकार से नहीं समझा है । काम पाप नहीं है ।

सामाजिक कानून के विरुद्ध भी नहीं है । इसका होना अनैतिक या चरित्रहीन होने की पुष्टि भी नहीं करता है । श्रीकृष्ण ने स्वयं को ‘ धर्मानुकूल काम ‘ कहा है । काम पितृऋण से मुक्त होने का सहज मार्ग है । संतान उत्पन्न करके ही कोई इस ऋण से मुक्त हो सकता है ।

स्त्री की कामेच्छा पुरुष से भिन्न होती है । वहां शरीर नहीं भावदशा महत्वपूर्ण है । स्त्री में होने वाले परिवर्तन भी इस मांग को समक्ष लाते हैं – स्वाभाविक रूप में । लेकिन स्त्री उसका परिष्कार कर देती है जैसे पृथ्वी मैले को खाद बनाकर जीवन देती है । इसे पूरी तरह से समझने के लिए आवश्यक है कामशास्त्र का अध्ययन किया जाए । कुल मिलाकर इस श्लोक द्वारा चाणक्य ने स्त्री के स्वभाव का विश्लेषण किया है ।

अध्याय का सार

यह भारतीय परंपरा रही है कि किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करने से पहले देवी देवताओं अथवा प्रभु का स्मरण किया जाए ताकि वह कार्य बिना किसी व्यवधान के सरलतापूर्वक सम्पन्न हो । ‘ चाणक्य नीति ‘ का प्रमुख उद्देश्य यह जानना है कि कौन – सा काम उचित है और कौन – सा अनुचित । आचार्य चाणक्य ने प्राचीन भारतीय नीतिशास्त्र में बताए गए नियमों के अनुसार ही इसे लिखा है । यह पूर्व अनुभवों का सार है ।

उनका कहना है कि लोग इसे पढ़कर अपने कर्तव्यों और अकर्तव्यों का भली प्रकार ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे । सम – सामयिक राजनीति के ज्ञान में मनुष्य अपनी बुद्धि का पुट देकर समय के अनुसार अच्छाई और बुराई में भेद कर सकता है ।

सबसे पहले आचार्य चाणक्य ने संग के महत्व पर प्रकाश डालते हुए यह बताया है कि दुष्ट लोगों के संसर्ग से बुद्धिमान मनुष्य को दुख उठाना पड़ता है । चाणक्य ने मनुष्य के जीवन में धन के महत्व को बताया है । उनका कहना है कि व्यक्ति को संकट के समय के लिए धन का संचय करना चाहिए ।

उस धन से अपने बाल – बच्चों तथा स्त्रियों की रक्षा भी करनी चाहिए । इसके साथ उनका यह भी कहना है कि व्यक्ति को अपनी रक्षा सर्वोपरि करनी चाहिए । जिन लोगों के पास धन है , वे किसी भी आपत्ति का सामना धन के द्वारा कर सकते हैं , परंतु उन्हें यह बात भी भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि लक्ष्मी चंचल है । वह तभी तक