Chanakya Niti In Hindi – चाणक्य नीति तीसरा अध्याय Third Chapter
जहां मूर्खा की पूजा नहीं होती , जहां अन्न आदि काफी मात्रा में इकट्ठे रहते हैं , जहां पति – पत्नी में किसी प्रकार का कलह , लड़ाई – झगड़ा नहीं , ऐसे स्थान पर लक्ष्मी स्वयं आकर निवास करने लगती है ।
कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः ।
व्यसनं केन न सम्प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम् ।।
संसार में ऐसा कौन – सा कुल अथवा वंश है , जिसमें कोई – न – कोई दोष अथवा अवगुण न हो , प्रत्येक व्यक्ति को किसी – न – किसी रोग का सामना करना ही पड़ता है , ऐसा मनुष्य कौन – सा है , जो व्यसनों में न पड़ा हो और कौन ऐसा है जो सदा ही सुखी रहता हो , क्योंकि प्रत्येक के जीवन में संकट तो आते ही हैं ।
आचार्य चाणक्य ने यह बात ठीक ही कही है कि कोई विरला ही वंश अथवा कुल ऐसा हो , जिसमें किसी प्रकार का दोष न हो । इसी तरह सभी व्यक्ति कभी – न – कभी किसी रोग से पीड़ित होते हैं । जो मनुष्य किसी बुरी लत में पड़ जाता है अथवा जिसे बुरे काम करने की आदत पड़ जाती है , उसे भी दुख उठाने पड़ते हैं । संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है , जिसे सदा सुख ही मिलता रहा हो और संकटों ने उसे कभी न घेरा हो । अर्थात कोई मनुष्य पूर्ण नहीं । कोई न कोई दुख सभी को लगा ही हुआ है ।
आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम् ।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ।।
मनुष्य के व्यवहार से उसके कुल का ज्ञान होता है । मनुष्य की बोल – चाल से इस बात का पता चलता है कि वह कहां का रहने वाला है , वह जिस प्रकार का मान – सम्मान किसी को देता है , उससे उसका प्रेम प्रकट होता है और उसके शरीर को देखकर उसके भोजन की मात्रा का अनुमान लगाया जा सकता है ।
मनुष्य जिस प्रकार का व्यवहार करता है , उससे उसके कुल का ज्ञान भली – प्रकार हो जाता है । इसी प्रकार मनुष्य की भाषा और बोलचाल से उसके देश – प्रदेश अथवा रहने के स्थान का पता चलता है । मनुष्य जिस प्रकार का किसी के प्रति आदर प्रकट करता है , उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका स्वभाव कैसा इसी प्रकार उसके शरीर की बनावट देखकर उसके खाने की मात्रा का अनुमान होता है । बनावट और उसका व्यवहार किसी भी मनुष्य के मन की स्थिति को पूरी तरह से बता देता है । लेकिन इसके लिए अनुभव अपेक्षित है ।
सुकुले योजयेत्कन्यां पुत्रं विद्यासु योजयेत् ।
व्यसने योजयेच्छत्रु मित्रं धर्मे नियोजयेत् ।।
समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी कन्या का विवाह किसी अच्छे कुल में करे , पुत्र को अच्छी शिक्षा दे । उसे इस प्रकार की शिक्षा दे , जिससे उसका मान – सम्मान बढ़े । शत्रु को किसी ऐसे व्यसन में डाल दे , जिससे उसका बाहर निकलना कठिन हो जाए और अपने मित्र को धर्म के मार्ग में लगाए ।
प्रत्येक माता – पिता का कर्तव्य है कि अपनी पुत्री का विवाह किसी अच्छे परिवार में ही करें । ‘ अच्छा कुल ‘ अर्थात् जो संस्कारित हो और शिक्षित भी । उन्हें चाहिए कि वह अपनी संतान को विद्वान बनाएं , ताकि उनका अपना कुल भी गुण – संपन्न हो । शत्रु के संबंध में व्यसन की बात चाणक्य ने जिस प्रकार से कही है , उससे प्रकट होता है कि वे कितनी दूर की बात सोचते थे ।
आज भी देखने में आता है कि बहुत से पड़ोसी देश अपने विकास में लगे हुए देशों को मार्ग से भटकाने के लिए लोगों में धन का लालच पैदा करके उन्हें नशीले पदार्थों के व्यापार में लगाने का प्रयत्न करते हैं । आज पहले सी परिस्थितियां नहीं रह गई हैं , परस्पर युद्ध की संभावना बहुत कम हो गई है । इसीलिए दूसरे देश को कमजोर बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाए जाते हैं ।
नशे की लत में एक बार फंसने पर निकलना कठिन होता है । व्यसनी व्यक्ति मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है और ऐसा शत्रु यदि जीवित भी रहे , तो कोई अंतर नहीं पड़ता । मित्र को सदैव श्रेष्ठ कार्यों की ओर प्रेरित करते रहना चाहिए ।
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः ।
सो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे ।।
Chanakya Niti In Hindi – दुष्ट व्यक्ति और सांप , इन दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो दुष्ट व्यक्ति की अपेक्षा सांप को चुनना ठीक होगा , क्योंकि सांप समय आने पर ही काटेगा , जबकि दुष्ट व्यक्ति हर समय हानि पहुंचाता रहेगा । ।।4 ।। चाणक्य ने यहां स्पष्ट किया है कि दुष्ट व्यक्ति सांप से भी अधिक हानिकर होता है । सांप तो आत्मरक्षा के लिए आक्रमण करता है , परंतु दुष्ट व्यक्ति अपने स्वभाव के कारण सदैव किसी – न – किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाता ही रहता है । इस प्रकार दुष्ट व्यक्ति सांप से भी अधिक घातक होता है ।
एतदर्थ कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम् ।
आदिमध्याऽवसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम् ।।
राजा लोग कुलीन व्यक्तियों को अपने पास इसलिए रखते हैं कि वे राजा की उन्नति के समय , उसका ऐश्वर्य समाप्त हो जाने पर तथा विपत्ति के समय भी उसे नहीं छोड़ते ।
राजा लोग अथवा राजपुरुष राज्य के महत्वपूर्ण पदों और स्थानों पर उत्तम कुल वाले व्यक्तियों को ही नियुक्त करते हैं , क्योंकि उनमें उच्च संस्कारों तथा अच्छी शिक्षा के कारण एक विशिष्टता होती है , वे राजा के हर काम में सहायक होते हैं । वे उसकी उन्नति के समय अथवा सामान्य – मध्यम स्थिति में तथा संकट आने के समय भी साथ नहीं छोड़ते । कुलीन व्यक्ति अवसरवादी नहीं , आदर्शवादी होता है ।
यदि इस बात को आज के संदर्भ में भी देखा जाए तो स्वार्थी और नीच कुल के व्यक्ति ही अपना स्वार्थ सिद्ध होने पर दल – बदल कर लेते हैं और अपने दल का साथ छोड़ देते हैं । परोक्ष रूप से चाणक्य लोगों को सचेत करना चाहते हैं कि सहयोगियों का चुनाव करते समय कुल और संस्कारों का विचार अवश्य करना चाहिए ।
प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः ।
सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः ।।
समुद्र भी प्रलय की स्थिति में अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर देते हैं और किनारों को लांघकर सारे प्रदेश में फैल जाते हैं , परंतु सज्जन व्यक्ति प्रलय के समान भयंकर विपत्ति और कष्ट आने पर भी अपनी सीमा में ही रहते हैं , अपनी मर्यादा नहीं छोड़ते ।
विशाल सागर बहुत गंभीर रहता है , परंतु चाणक्य धैर्यवान गंभीर व्यक्ति को सागर की अपेक्षा श्रेष्ठ मानते हैं । प्रलय के समय सागर अपनी सारी मर्यादा भूल जाता है , अपनी सभी सीमाएं तोड़ देता है और जल – थल एक हो जाता है , परन्तु श्रेष्ठ व्यक्ति अनेक संकटों को सहन करता है और अपनी मर्यादाएं कभी पार नहीं करता
मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः ।
भिनत्ति वाक्यशल्येन अदृष्टः कण्टको यथा ।।
मूर्ख व्यक्ति से दूर ही रहना चाहिए , क्योंकि मनुष्य दिखता हुआ भी वह दो पैरों वाले पशु के समान है । वह सज्जनों को उसी प्रकार कष्ट पहुंचाता रहता है , जैसे शरीर में चुभा हुआ कांटा शरीर को निरंतर पीड़ा देता रहता है । कांटा छोटा होने के कारण अदृश्य हो जाता है और शरीर में धंस जाता है । मूर्ख की भी यही स्थिति है । वह भी अनजाने में दुख और पीड़ा का कारण बनता है । अकसर लोग मूर्ख की ओर भी ध्यान नहीं देते , वे उसे साधारण मनुष्य ही समझते हैं ।
रूपयौवनसम्पन्नाः विशालकुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ।।
सुंदर रूप वाला , यौवन से युक्त , ऊंचे कुल में उत्पन्न होने पर भी विद्या से हीन मनुष्य सुगंधरहित ढाक अथवा टेसू के फूल की भांति उपेक्षित रहता है , प्रशंसा को प्राप्त नहीं होता । 11811 यदि किसी व्यक्ति ने अच्छे कुल में जन्म लिया है और देखने में भी उसका शरीर सुंदर है , परंतु यदि वह भी विद्या से हीन है तो उसकी स्थिति भी ढाक के उसी फूल के समान होती है , जो गंधरहित होता है । ढाक का फूल देखने में सुंदर और बड़ा होता है , परंतु जब लोग यह देखते हैं कि उसमें किसी प्रकार की सुगंध नहीं है तो वे उसकी उपेक्षा कर देते हैं । न तो वह किसी देवता के पूजन में चढ़ाया जाता है , न ही साज – शृंगार में उसका उपयोग किया जाता है ।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ।
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ।।
कोयल का सौंदर्य उसके स्वर में है , उसकी मीठी आवाज में है , स्त्रियों का सौंदर्य उनका पतिव्रता होना है , कुरूप लोगों का सौंदर्य उनके विद्यावान होने में और तपस्वियों की सुंदरता उनके क्षमावान होने में है । भाव यह है कि व्यक्ति का सौंदर्य उसके गुणों में छिपा रहता है । जिस प्रकार कोयल और कौआ दोनों काले होते हैं ,
परंतु कोयल की मीठी कूक सभी को पसंद होती है , यही मीठा स्वर उसका सौंदर्य है , इसी प्रकार स्त्रियां वे ही सुंदर मानी जाती हैं , जो पतिव्रता होती हैं अर्थात स्त्री का सौंदर्य उसका पातिव्रत धर्म है ।
समाज में भी पति – परायणा स्त्री को ही सम्मान प्राप्त है , उसी की लोगों द्वारा सराहना की जाती है । शरीर से कुरूप व्यक्ति भी विद्या के कारण आदर का पात्र बन जाता है जैसे सत्यवती पुत्र व्यास ।
तप करने वाले व्यक्ति की शोभा उसकी क्षमाशीलता के कारण होती है । महर्षि भृगु ने ‘ क्षमा ‘ करने की विशेषता के कारण ही श्रीविष्णु को देवताओं में श्रेष्ठ घोषित किया था
। त्यजेदेकं कुलस्याऽर्थे ग्रामस्याऽर्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्याऽर्थे आत्माऽर्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।
यदि एक व्यक्ति का त्याग करने से कुल की रक्षा होती है , उन्नति होती है , सुख – शांति मिलती है तो उस एक व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए , उसका त्याग कर देना चाहिए । ग्राम के हित के लिए कुल छोड़ देना चाहिए । यदि एक गांव को छोड़ने से पूरे जिले का कल्याण हो , तो उस गांव को भी छोड़ देना चाहिए । इसी प्रकार आत्मा की उन्नति के लिए सारे भूमंडल का ही त्याग कर देना चाहिए ।
छोटे स्वार्थों के त्याग की ओर संकेत करता है यह श्लोक । इस दृष्टि से ‘ स्व ‘ ही सर्वश्रेष्ठ है अर्थात् यदि व्यक्ति अपनी उन्नति में किसी चीज को बाधक समझता है तो उसका त्याग कर देने में देर नहीं करनी चाहिए – वह कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो ।
उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम् ।
मौने च कलहो नास्ति नास्ति जागरिते भयम् ।।
उद्योग अर्थात पुरुषार्थ करने वाला व्यक्ति दरिद्र नहीं हो सकता , प्रभु का नाम जपते रहने से मनुष्य पाप में लिप्त नहीं होता , मौन रहने पर लड़ाई – झगड़े नहीं होते तथा जो व्यक्ति जागता रहता है अर्थात सतर्क रहता है , उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता ।
जो व्यक्ति निरंतर परिश्रम करते रहते हैं , उनकी गरीबी स्वयं दूर हो जाती है । परिश्रम करके भाग्य को भी अपने वश में किया जा सकता है । जो व्यक्ति सदैव प्रभु का स्मरण करता रहता है , अपने हृदय में सदैव उसे विद्यमान समझता है , वह पापकार्य में प्रवृत्त नहीं होता । श्लोक के दूसरे भाग में कहा गया है कि मौन रहने से लड़ाई – झगड़ा नहीं होता अर्थात् विवादों का समाधान है मौन । यह बात जीवन के सभी पक्षों पर लागू होती है । जो व्यक्ति सावधान रहता है , सतर्क रहकर अपने कार्य करता है , उसे किसी भी प्रकार के भय की आशंका नहीं रहती । जिस व्यक्ति को आलस्य , असावधानी और गफलत में रहने की आदत है , उसे हर स्थान पर हानि उठानी पड़ती है । उसका न तो आज है , न कल ।
अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेण रावणः ।
अतिदानात् बलिर्बद्धो अति सर्वत्र वर्जयेत् ।।
अत्यंत रूपवती होने के कारण ही सीता का अपहरण हुआ , अधिक अभिमान होने के कारण रावण मारा गया , अत्यधिक दान देने के कारण राजा बलि को कष्ट उठाना पड़ा , इसलिए किसी भी कार्य में अति नहीं करनी चाहिए । अति का सर्वत्र त्याग कर देना चाहिए । चाणक्य ने यहां इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण देकर यह समझाने का प्रयत्न किया है कि प्रत्येक कार्य की एक सीमा होती है ।
जब उसका अतिक्रमण हो जाता है तो व्यक्ति को कष्ट उठाना पड़ता है । सीता अत्यंत रूपवती थीं , इसी कारण उनका अपहरण हुआ । इसी प्रकार रावण यद्यपि अत्यंत बलवान और समृद्ध राजा था , परंतु अभिमान की सभी सीमाएं लांघ गया , परिणामस्वरूप उसे अपने स्वजनों के साथ मौत के घाट उतरना पड़ा । राजा बलि के संबंध में सभी जानते हैं कि वह अत्यंत दानी था । उसके दान के कारण जब उसका यश सारे संसार में फैलने लगा तो देवता लोग भी चिन्तित हो उठे । त
ब भगवान विष्णु ने वामन का अवतार लेकर उससे तीन पग धरती दान में मांगी । बलि के गुरु शुक्राचार्य ने उसे सावधान भी किया , परंतु बलि ने उनकी बात न मानकर वामन बने विष्णु की बात मान ली और भगवान ने तीन पगों में धरती , स्वर्ग और पाताल – तीनों लोकों को नापकर बलि को भिखारी बना दिया । इन सब उदाहरणों का भाव यही है कि अच्छाई भी एक सीमा से आगे बढ़ जाती है , तो वह बुराई अर्थात् हानिकर बन जाती है । लोग उसका लाभ उठाते हैं । इसीलिए कहा गया है कि अति न करो ।
को हि भारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम् ।
को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ।।
समर्थ अथवा शक्तिशाली लोगों के लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं होता , व्यापारियों के लिए भी कोई स्थान दूर नहीं , पढ़े – लिखे विद्वान व्यक्तियों के लिए कोई भी स्थान विदेश नहीं । इसी प्रकार जो मधुरभाषी हैं , उनके लिए कोई पराया नहीं ।
जो लोग शक्तिशाली हैं अर्थात जिनमें सामर्थ्य है , उनके लिए कोई भी काम पूरा कर लेना कठिन नहीं होता । वे प्रत्येक कार्य को सरलतापूर्वक कर लेते हैं । व्यापारी अपने व्यापार की वृद्धि के लिए दूर – दूर के देशों में जाते हैं , उनके लिए भी कोई स्थान दूर नहीं । विद्वान व्यक्ति के लिए भी कोई परदेस नहीं । वह जहां भी जाएगा , विद्वत्ता के कारण वहीं सम्मानित होगा । इसी प्रकार मधुर भाषण करने वाला व्यक्ति पराये लोगों को भी अपना बना लेता है । उसके लिए पराया कोई भी नहीं होता , सब उसके अपने हो जाते हैं ।
एकेनाऽपि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना ।
वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं तथा ।।
जिस प्रकार सुगंधित फूलों से लदा हुआ एक ही वृक्ष सारे जंगल को सुगंध से भर देता है , उसी प्रकार सुपुत्र से सारे वंश की शोभा बढ़ती है , प्रशंसा होती है । बहुत से लोगों के बहुत से पुत्र अथवा संतानें होती हैं , परंतु उनकी अधिकता के कारण परिवार का सम्मान नहीं बढ़ता । कुल का सम्मान बढ़ाने के लिए एक सद्गुणी पुत्र ही काफी होता है । धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक भी ऐसा नहीं निकला जिसे सम्मान से स्मरण किया जाता हो । ऐसे सौ पुत्रों से क्या लाभ ? सगर के तो साठ हजार पुत्र थे ।
एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वनिना ।
दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं तथा ।।
जिस प्रकार एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने से सारा जंगल जलकर राख हो जाता है , उसी प्रकार एक मूर्ख और कुपुत्र सारे कुल को नष्ट कर देता है । जैसे जंगल का एक सूखा पेड़ आग पकड़ ले तो सारा वन जल उठता है , उसी प्रकार कुल में एक कुपुत्र पैदा हो जाए तो वह सारे कुल को नष्ट कर देता है । कुल की प्रतिष्ठा , आदर – सम्मान आदि सब धूल में मिल जाते हैं । दुर्योधन का उदाहरण सभी जानते हैं , जिसके कारण कौरवों का नाश हुआ । लंकापति रावण भी इसी श्रेणी में आता है ।
एकेनाऽपि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना ।
आहूलादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी ।।
एक ही पुत्र यदि विद्वान और अच्छे स्वभाव वाला हो तो उससे परिवार को उसी प्रकार खुशी होती है , जिस प्रकार एक चंद्रमा के उत्पन्न होने पर काली रात चांदनी से खिल उठती है ।
यह आवश्यक नहीं है कि परिवार में यदि बहुत – सी संतानें हैं , तो वह परिवार सुखी ही हो । अनेक संतानों के होने पर भी यदि उनमें से कोई विद्वान और सदाचारी नहीं तो परिवार के सुखी होने का प्रश्न ही नहीं उठता । इसलिए चाणक्य कहते हैं कि बहुत से मूर्ख पुत्रों और संतान की अपेक्षा एक ही विद्वान और सदाचारी पुत्र से परिवार को उसी प्रकार प्रसन्नता मिलती है , जैसे चांद के निकलने पर उसके प्रकाश से काली रात जगमगा उठती है ।
किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः ।
वरमेकः कुलाऽऽलम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम् ।।
दुख देने वाले , हृदय को जलाने वाले बहुत से पुत्रों के उत्पन्न होने से क्या लाभ ? कुल को सहारा देने वाला एक ही पुत्र श्रेष्ठ होता है , उसके आश्रय में पूरा कुल सुख भोगता है । ऐसे बहुत से पुत्रों से कोई लाभ नहीं , जिनके कार्यों से परिवार को शोक का सामना करना पड़े , हृदय को दुख पहुंचे ।
ऐसे बहुत से पुत्रों की अपेक्षा परिवार को सहारा देने वाला एक ही पुत्र अधिक उपयोगी होता है , जिसके कारण परिवार को सुख प्राप्त होता है ।
लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ।।
पांच वर्ष की आयु तक पुत्र से प्यार करना चाहिए , इसके बाद दस वर्ष तक उसकी ताड़ना की जा सकती है और उसे दंड दिया जा सकता है , परंतु सोलह वर्ष की आयु में पहुंचने पर उससे मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए ।
विकासात्मक मनोविज्ञान का सूत्र है यह श्लोक । पांच वर्ष की आयु तक के बच्चे के साथ लाड़ – दुलार करना चाहिए , क्योंकि इस समय वह सहज विकास से गुजर रहा होता है ।
अधिक लाड़ – प्यार करने से बच्चा बिगड़ न जाए , इसलिए दस वर्ष की आयु तक उसे दंड देने की बात कही गई है , उसे डराया – धमकाया जा सकता है , परंतु सोलह वर्ष की आयु तक पहुंचने पर उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार नहीं किया जा सकता । उस समय उसके साथ मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिए , क्योंकि तब उसका व्यक्तित्व और सामाजिक ‘ अहं ‘ विकसित हो रहा होता है । मित्रता का अर्थ है , उसे यह महसूस कराना कि उसकी परिवार में महत्वपूर्ण भूमिका है । मित्र पर जैसे आप अपने विचारों को लादते नहीं हैं , वैसा ही आप यहां अपनी संतान के साथ भी करें । यहां भी समझाने बुझाने में तर्क और व्यावहारिकता हो , न कि अहं की भावना ।
उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे ।
असाधुजनसम्पर्के यः पलायति स जीवति ।।
प्राकृतिक आपत्तियां – जैसे अधिक वर्षा होना और सूखा पड़ना अथवा दंगे – फसाद आदि होने पर , महामारी के रूप में रोग फैलने , शत्रु के आक्रमण करने पर , भयंकर अकाल पड़ने पर और नीच लोगों का साथ होने पर जो व्यक्ति सब कुछ छोड़ – छाड़कर भाग जाता है , वह मौत के मुंह में जाने से बच जाता है ।
भावार्थ यह है कि जहां दंगे – फसाद हों , उस जगह से व्यक्ति को दूर रहना चाहिए । यदि किसी शत्रु ने हमला कर दिया हो या फिर अकाल पड़ गया हो और दुष्ट लोग अधिक संपर्क में आ रहे हों , तो व्यक्ति को वह स्थान छोड़ देना चाहिए । जो ऐसा नहीं करता , वह मृत्यु का ग्रास बन जाता है ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते ।
जन्म – जन्मनि मर्येषु मरणं तस्य केवलम् ।।
जिस व्यक्ति के पास धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष आदि इन चार पुरुषार्थों में से कोई भी पुरुषार्थ नहीं है , वह बार – बार मनुष्य योनि में जन्म लेकर केवल मरता ही रहता है , इसके अतिरिक्त उसे कोई लाभ नहीं होता । ।।20 ।। चाणक्य का भाव यह है कि व्यक्ति मनुष्य जन्म में आकर धर्म , अर्थ और काम के लिए पुरुषार्थ करता हुआ मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करे , मानव देह धारण करने का यही लाभ है ।
मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम् ।
दम्पत्येः कलहो नाऽस्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ।।
जहां मूरों की पूजा नहीं होती , जहां अन्न आदि काफी मात्रा में इकट्ठे रहते हैं , जहां पति – पत्नी में किसी प्रकार की कलह , लड़ाई – झगड़ा नहीं , ऐसे स्थान पर लक्ष्मी स्वयं आकर निवास करने लगती है ।
इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि जो लोग देश अथवा देशवासी , मूर्ख लोगों की बजाय गुणवानों का आदर – सम्मान करते हैं , अपने गोदामों में भली प्रकार अन्न का संग्रह करके रखते हैं , जहां के लोगों में घर – गृहस्थी में लड़ाई – झगड़े नहीं , मतभेद नहीं , उन लोगों की संपत्ति अपने – आप बढ़ने लगती है । यहां एक बात विशेष रूप से समझने की है कि लक्ष्मी को श्री भी कहते हैं , लेकिन इन दोनों में मूलतः अंतर है ।
आज जबकि प्रत्येक व्यक्ति लक्ष्मी का उपासक हो गया है और सोचता है कि समस्त सुख के साधन जुटाए जा सकते हैं , तो उसे इनमें फर्क समझना होगा ।
लक्ष्मी का एक नाम चंचला भी है । एक स्थान पर न रुकना इसका स्वभाव है । लेकिन जिस श्री की बात आचार्य चाणक्य ने की है , वह बुद्धि की सखी है । बुद्धि की श्री के साथ गाढ़ी मित्रता है । ये दोनों एक – दूसरे के बिना नहीं रह सकतीं । महर्षि व्यास ने श्री का माहात्म्य भगवान के साथ जोड़कर किया है । उनका कहना है कि जहां श्री है , वहां भगवान को उपस्थित जानो । इस श्लोक में जिन गुणों को बताया गया है उनका होना भगवान की उपस्थिति का संकेत है । लक्ष्मी चंचला है लेकिन श्री जिसके मन या घर में प्रविष्ट हो जाती है उसे अपनी इच्छा से नहीं छोड़ती । श्री का अर्थ संतोष से भी किया जाता है । संतोष को सर्वश्रेष्ठ संपत्ति माना गया है । इस प्रकार संतोषी व्यक्ति को लक्ष्मी के पीछे – पीछे जाने की आवश्यकता नहीं होती , वह स्वयं उसके घर – परिवार में आकर निवास करती है ।
अध्याय का सार – Chanakya niti In Hindi
आचार्य ने विशेष रूप से मनुष्य के आचार अर्थात चरित्र के संबंध में कुछ बातें कही हैं । उन्होंने माना है कि अच्छे – से – अच्छे कुल में कहीं – न – कहीं किसी प्रकार का दोष मिल ही जाता है और संसार में ऐसा कौन – सा पुरुष है , जो कभी रोगों का शिकार न हुआ हो । सभी में कोई – न – कोई व्यसन भी होता है । इस संसार में लगातार किसको सुख प्राप्त होता है अर्थात कोई सदा सुखी नहीं रह सकता , कभी – न – कभी वह कष्टों में पड़ता ही है । सुख – दुख का संबंध दिन – रात की तरह है । महान व्यक्तियों को और धर्मात्माओं को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं । ऐसा संसार का नियम है ।
चाणक्य का मानना है कि मनुष्य के आचार – व्यवहार से , बोलचाल से , दूसरों के प्रति मान – सम्मान प्रकट करने से उसके कुल की विशिष्टता का ज्ञान होता है । आचार्य का मानना है कि पुत्री का विवाह अच्छे आचरणशील परिवार में करना चाहिए और पुत्रों को ऐसी प्रेरणा देनी चाहिए कि वे उच्च शिक्षा प्राप्त करें ।
शिक्षा ही जीने की कला सिखाती है । शत्रु को व्यसनों में फंसाने की बात करते हुए आचार्य संकेत करते हैं कि शत्रु का नाश बौद्धिक चातुर्य के साथ किया जाना चाहिए । इसलिए सावधान रहें और लाभ उठाएं । चाणक्य ने शिक्षा और बुद्धिमत्ता पर सब कार्यों की अपेक्षा अधिक जोर दिया है । वे कहते हैं कि मूर्ख भी सज्जन और बुद्धिमान की तरह दो पैर वाला होता है
परंतु वह चार पैर वाले पशु से भी निकृष्ट और गया – गुजरा माना जाता है , क्योंकि उसके कार्य सदैव कष्ट पहुंचाने वाले होते हैं ।
चाणक्य कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ है तथा रूप और यौवन आदि से भी युक्त है , परंतु उसने विद्या ग्रहण नहीं की तो यह सब उसी प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार बिना सुगंध के सुंदर फूल ।
उनका मानना है कि किसी का सम्मान उसके गुणों के कारण होता है , न कि रूप और यौवन के कारण । आचरण से संबंधित एक और महत्वपूर्ण बात चाणक्य ने यह कही है कि यदि किसी एक व्यक्ति के बलिदान से कुल का कल्याण हो तो उसका बलिदान कर देना चाहिए , परंतु उन्होंने मनुष्य को सर्वोपरि माना है और वे कहते हैं कि यदि व्यक्ति अपने कल्याण के लिए चाहे तो प्रत्येक वस्तु का बलिदान कर सकता है ।
उनका मानना है कि व्यक्ति को अपनी निर्धनता दूर करने के लिए उद्यम और पापों से बचने के लिए प्रभु का स्मरण करते रहना चाहिए । उन्होंने बार – बार मनुष्य को सचेत किया है कि वह किस प्रकार कष्टों से बच सकता है । उनका कहना है कि व्यक्ति को सदैव सतर्क रहना चाहिए ।
आचरण में आचार्य किसी भी तरह की अति के पक्ष में नहीं हैं । आचार्य के अनुसार मधुर भाषण करने वाला व्यक्ति समूचे संसार को अपना बना सकता है । अनेक कुपुत्र होने के बजाय एक सुपुत्र होना कहीं अच्छा है । चाणक्य ने बाल मनोविज्ञान पर भी प्रकाश डाला है । उनका कहना है कि पांच वर्ष तक की आयु के बच्चे से लाड़ – दुलार करना चाहिए । इसके बाद की आयु में अनुशासित करने के लिए डांट – फटकार , ताड़ना करने की आवश्यकता हो , तो वह भी करनी चाहिए , परंतु जब बच्चा सोलह वर्ष की आयु तक पहुंच जाता है तब उसे मित्र के समान समझकर व्यवहार करना चाहिए । श्लोक में ‘ पुत्र ‘ शब्द का प्रयोग संतान के अर्थ में किया गया है । बेटियों के संदर्भ में भी यही नियम लागू होता है ।
आचार्य ने बार – बार मनुष्यों को यह बताने – समझाने का प्रयत्न किया है कि यह मानव शरीर अत्यंत मूल्यवान है । व्यक्ति को अपना दायित्व निभाने के लिए यथाशक्ति धर्माचरण करते रहना चाहिए । चाणक्य इस अध्याय के अंत में समूचे समाज को मूों से बचने का परामर्श देते हैं ।
अपने अन्न तथा अन्य उत्पाद को ठीक ढंग से संभालकर रखना चाहिए और आपस में प्रेमपूर्वक रहना चाहिए । झगड़े – फसाद में अपना जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए । ऐसा करके हम स्वयं को दुख के गर्त में डालते हैं ।