चाणक्य नीति : द्वितीय अध्याय – Chanakya Niti In Hindi
‘ मनसा चिंतित कार्य ‘ अर्थात मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए , परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और स्वयं चुप रहते हुए उस सोची हुई बात को कार्यरूप में बदलना चाहिए ।
अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलुब्धता ।
अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ।।
झूठ बोलना , बिना सोचे – समझे किसी कार्य को प्रारंभ कर देना , दुस्साहस करना , छलकपट करना , मूर्खतापूर्ण कार्य करना , लोभ करना , अपवित्र रहना और निर्दयता – ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं । ।।1 ।। स्त्रियों में प्रायः ये दोष पाए जाते हैं – वे सामान्य बात पर भी झूठ बोल सकती हैं , अपनी शक्ति का विचार न करके अधिक साहस दिखाती हैं , छल – कपट पूर्ण कार्य करती हैं , मूर्खता , अधिक लोभ , अपवित्रता तथा निर्दयी होना , ये ऐसी बातें हैं जो प्रायः स्त्रियों के स्वभाव में होती हैं ।
ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं अर्थात अधिकांश स्त्रियों में ये होते हैं । अब तो स्त्रियां शिक्षित होती जा रही हैं । समय बदल रहा है । लेकिन आज भी अधिकांश अशिक्षित स्त्रियां इन दोषों से युक्त हो सकती हैं । इन दोषों को स्त्री की समाज में स्थिति और उसके परिणामस्वरूप बने उनके मनोविज्ञान के संदर्भ में देखना चाहिए ।
भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरांगना ।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ।।
किन्ही शुभ भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का प्राप्त होना , उन्हें खाकर पचाने की शक्ति होना , सुंदर स्त्री का मिलना , उसके उपभोग के लिए कामशक्ति होना , धन के साथ – साथ दान देने की इच्छा होना – ये बातें मनुष्य को किसी महान तप के कारण प्राप्त होती हैं ।
भोजन में अच्छी वस्तुओं की कामना सभी करते हैं , परंतु उनका प्राप्त होना और उन्हें पचाने की शक्ति होना भी आवश्यक है । प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसकी पत्नी सुंदर हो , परंतु उसके उपभोग के लिए व्यक्ति में कामशक्ति भी होनी चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसके पास धन हो , परंतु धन प्राप्ति के बाद कितने ऐसे लोग हैं , जो उसका सदुपयोग कर पाते हैं ।
धन का सदुपयोग दान में ही है । अच्छी जीवन संगिनी , शारीरिक शक्ति , पौरुष एवं निरोगता , धन तथा वक्त – जरूरत पर किसी के काम आने की प्रवृत्ति आदि पूर्वजन्मों में कर्मों द्वारा ही प्राप्त होते हैं । ‘ तपसः फलम् ‘ का अर्थ है कठोर श्रम और आत्मसंयमा
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दाऽनुगामिनी ।
विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ।।
जिसका बेटा वश में रहता है , पत्नी पति की इच्छा के अनुरूप कार्य करती है और जो व्यक्ति धन के कारण पूरी तरह संतुष्ट है , उसके लिए पृथ्वी ही स्वर्ग के समान है । प्रत्येक व्यक्ति संसार में सुखी रहना चाहता है , यही तो स्वर्ग है । स्वर्ग में भी सभी प्रकार के सुखों को उपभोग करने की कल्पना की गई है ।
इस बारे में चाणक्य कहते हैं कि जिसका पुत्र वश में है , स्त्री जिसकी इच्छा के अनुसार कार्य करती है , जो अपने कमाए धन से संतुष्ट है , जिसे लोभ – लालच और अधिक कमाने की चाह नहीं है , ऐसे मनुष्य के लिए किसी अन्य प्रकार के स्वर्ग की कल्पना करना व्यर्थ है । स्वर्ग तो वह जाना चाहेगा , जो यहां दुखी हो ।
पुत्रा ये पितुर्भक्ताः स पिता यस्तु पोषकः ।
तन्मित्रं यस्य विश्वासः सा भार्या यत्र निर्वृतिः ।।
पुत्र उन्हें ही कहा जा सकता है जो पिता के भक्त होते हैं , पिता भी वही है जो पुत्रों का पालन – पोषण करता है , इसी प्रकार मित्र भी वही है जिस पर विश्वास किया जा सकता है और भार्या अर्थात पत्नी भी वही है जिससे सुख की प्राप्ति होती है ।
चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थ सुखी है , जिसकी संतान उसके वश में है और उसकी आज्ञा का पालन करती है । यदि संतान पिता की आज्ञा का पालन नहीं करती तो घर में क्लेश और दुख पैदा होता है । चाणक्य के अनुसार पिता का भी कर्तव्य है कि वह अपनी संतान का पालन – पोषण भली प्रकार से करे ।
जिसने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लिया हो , उसे पुत्र से भी भक्ति की आशा नहीं करनी चाहिए । इसी प्रकार मित्र के विषय में चाणक्य का मत है कि ऐसे व्यक्ति को मित्र कैसे कहा जा सकता है , जिस पर विश्वास नहीं किया जा सकता और ऐसी पत्नी किस काम की , जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो तथा जो सदैव ही क्लेश करके घर में अशान्ति फैलाती हो ।
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।
जो पीठ पीछे कार्य को बिगाड़े और सामने होने पर मीठी – मीठी बातें बनाए , ऐसे मित्र को उस घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके मुंह पर तो दूध भरा हुआ है परंतु अंदर विष हो
। जो मित्र सामने चिकनी – चुपड़ी बातें बनाता हो और पीठ पीछे उसकी बुराई करके कार्य को बिगाड़ देता हो , ऐसे मित्र को त्याग देने में ही भलाई है । चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है , जिसके ऊपर के हिस्से में दूध भरा है परंतु अंदर विष भरा हुआ हो । ऊपर से मीठे और अंदर से दुष्ट व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता । यहां एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि ऐसा मित्र आपके व्यक्तिगत और सामाजिक वातावरण को भी आपके प्रतिकूल बना देता है ।
न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चाऽपि न विश्वसेत् ।
कदाचित् कुपितं मित्रं सर्व गुह्यं प्रकाशयेत् ।।
जो मित्र खोटा है , उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए और जो मित्र है , उस पर भी अति विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा हो सकता है कि वह मित्र कभी नाराज होकर सारी गुप्त बातें प्रकट कर दे ।।। 6 ।। चाणक्य मानते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता , परंतु उनका यह भी कहना उचित है कि अच्छे मित्र के संबंध में भी पूरी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए , क्योंकि किसी कारणवश यदि वह नाराज हो गया तो सारे भेद खोल देगा । आज बड़े – बड़े नगरों में जो अपराध बढ़ रहे हैं , जो कुकर्म हो रहे हैं , उनके पीछे परिचित व्यक्ति ही अधिक पाए जाते हैं । ‘ घर का भेदी लंका ढाए ‘ – यह कहावत गलत नहीं है । जो बहुत अच्छा मित्र बन जाता है , वह घर के सदस्य जैसा हो जाता है ।
व्यक्ति भावुक होकर उसे अपने सारे भेद बता देता है , फिर जब कभी मन – मुटाव उत्पन्न होते हैं तो वह कथित मित्र ही सबसे ज्यादा नुकसान देने वाला सिद्ध होता है । ऐसा मित्र जानता है आपके मर्मस्थल कौन से हैं । घर में काम करने वाले कर्मचारी के बारे में भी इस प्रकार की सावधानी रखना आवश्यक है ।
मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत् ।
मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्ये चाऽपि नियोजयेत् ।।
मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए , परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और चुप रहते हुए उस सोची बात को सदैव ही क्लेश करके घर में अशान्ति फैलाती हो ।
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।
जो पीठ पीछे कार्य को बिगाड़े और सामने होने पर मीठी – मीठी बातें बनाए , ऐसे मित्र को उस घड़े के समान त्याग देना चाहिए जिसके मुंह पर तो दूध भरा हुआ है परंतु अंदर विष हो
जो मित्र सामने चिकनी – चुपड़ी बातें बनाता हो और पीठ पीछे उसकी बुराई करके कार्य को बिगाड़ देता हो , ऐसे मित्र को त्याग देने में ही भलाई है । चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है , जिसके ऊपर के हिस्से में दूध भरा है परंतु अंदर विष भरा हुआ हो । ऊपर से मीठे और अंदर से दुष्ट व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता । यहां एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि ऐसा मित्र आपके व्यक्तिगत और सामाजिक वातावरण को भी आपके प्रतिकूल बना देता है ।
न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चाऽपि न विश्वसेत् ।
कदाचित् कुपितं मित्रं सर्व गुह्यं प्रकाशयेत् ।।
जो मित्र खोटा है , उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए और जो मित्र है , उस पर भी अति विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा हो सकता है कि वह मित्र कभी नाराज होकर सारी गुप्त बातें प्रकट कर दे । चाणक्य मानते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता , परंतु उनका यह भी कहना उचित है कि अच्छे मित्र के संबंध में भी पूरी तरह विश्वास नहीं करना चाहिए , क्योंकि किसी कारणवश यदि वह नाराज हो गया तो सारे भेद खोल देगा ।
आज बड़े – बड़े नगरों में जो अपराध बढ़ रहे हैं , जो कुकर्म हो रहे हैं , उनके पीछे परिचित व्यक्ति ही अधिक पाए जाते हैं । ‘ घर का भेदी लंका ढाए ‘ – यह कहावत गलत नहीं है । जो बहुत अच्छा मित्र बन जाता है , वह घर के सदस्य जैसा हो जाता है । व्यक्ति भावुक होकर उसे अपने सारे भेद बता देता है , फिर जब कभी मन – मुटाव उत्पन्न होते हैं तो वह कथित मित्र ही सबसे ज्यादा नुकसान देने वाला सिद्ध होता है । ऐ
सा मित्र जानता है आपके मर्मस्थल कौन से हैं । घर में काम करने वाले कर्मचारी के बारे में भी इस प्रकार की सावधानी रखना आवश्यक है ।
मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत् ।
मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्ये चाऽपि नियोजयेत् ।।
मन से सोचे हुए कार्य को वाणी द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए , परंतु मननपूर्वक भली प्रकार सोचते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए और चुप रहते हुए उस सोची बात को कार्यरूप में बदलना चाहिए ।
आचार्य का कहना है कि व्यक्ति को कभी किसी को अपने मन का भेद नहीं देना चाहिए । जो भी कार्य करना है , उसे अपने मन में रखें और समय आने पर पूरा करें । कुछ लोग किए जाने वाले कार्य के बारे में गाते रहते हैं । इस प्रकार उनकी बात का महत्व कम हो जाता है और यदि किसी कारणवश वह व्यक्ति उक्त कार्य को पूरा न कर सके तो उसकी हंसी होती है । इससे व्यक्ति का विश्वास भी कम होता है ।
फिर कुछ समय बाद ऐसा होता है कि लोग उसकी बातों पर ध्यान नहीं देते । उसे बे – सिर – पैर की हांकने वाला समझ लिया जाता है । अतः बुद्धिमान को कहने से अधिक करने के प्रति प्रयत्नशील होना चाहिए ।
कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम् ।
कष्टं तु कष्टतरं चैव परगेहनिवासनम् ।।
मूर्खता और जवानी निश्चित रूप से दुखदायक होती है । दूसरे के घर में निवास करना अर्थात किसी पर आश्रित होना तो अत्यन्त कष्टदायक होता है ।
मूर्ख होना कष्टदायक है , क्योंकि वह स्वयं को , अपनों को और दूसरों को एक समान हानि पहुंचाता है । मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी इसलिए माना गया है क्योंकि उसमें व्यक्ति काम , क्रोध आदि विकारों के आवेग में उत्तेजित होकर कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है , जिसके कारण उसे उसके अपनों और दूसरे लोगों को अनेक कष्ट उठाने पड़ सकते हैं ।
चाणक्य कहते हैं कि ये बातें तो कष्टदायक हैं ही परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरे के घर में रहना , क्योंकि दूसरे के घर में रहने से व्यक्ति की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है , जिससे व्यक्तित्व का पूर्णरूप से विकास नहीं हो पाता
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ।।
सभी पहाड़ों पर रत्न और मणियां नहीं मिलतीं । न ही प्रत्येक हाथी के मस्तक में गजमुक्ता नामक मणि होती है । प्रत्येक वन में चंदन भी उत्पन्न नहीं होता । इसी प्रकार सज्जन पुरुष सब स्थानों पर नहीं मिलते । ।।9 ।। आचार्य चाणक्य के अनुसार प्रत्येक स्थान पर सब कुछ उपलब्ध नहीं होता । विशिष्ट वस्तुएं विशेष स्थानों पर ही होती हैं । उन्हें वहीं ढूंढ़ना चाहिए और उसी के अनुसार उनका मूल्यांकन भी करना चाहिए ।
माणिक्य एक लाल रंग का बहुमूल्य रत्न होता है जो सभी पर्वतों पर अथवा खानों में प्राप्त नहीं हो सकता । ऐसी मान्यता है कि विशिष्ट हाथियों के माथे में एक बहुमूल्य मोती होता है । सब जंगलों और वनों में चंदन के वृक्ष जिस प्रकार नहीं मिलते , उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी सभी स्थानों पर दिखाई नहीं देते अर्थात श्रेष्ठ वस्तुएं मिलनी दुर्लभ होती हैं ।
पुत्राश्च विविधैः शीलैर्नियोज्याः सततं बुधैः । नीतिज्ञाः शीलसम्पन्ना भवन्ति कुलपूजिताः ।।
बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वह अपने पुत्र और पुत्रियों को अनेक प्रकार के अच्छे गुणों से युक्त करें । उन्हें अच्छे कार्यों में लगाएं , क्योंकि नीति जानने वाले और अच्छे गुणों से युक्त सज्जन स्वभाव वाले व्यक्ति ही कुल में पूजनीय होते हैं ।
चाणक्य कहते हैं कि बचपन में बच्चों को जैसी शिक्षा दी जाएगी , उनके जीवन का विकास उसी प्रकार का होगा , इसलिए माता – पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएं , जिससे उनमें चातुर्य के साथ – साथ शील स्वभाव का भी विकास हो । गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा होती है । माता शत्रु पिता वैरी
येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ।।
वे माता – पिता बच्चों के शत्रु हैं , जिन्होंने बच्चों को पढ़ाया – लिखाया नहीं , क्योंकि अनपढ़ बालक विद्वानों के समूह में शोभा नहीं पाता , उसका सदैव तिरस्कार होता है । विद्वानों के समूह में उसका अपमान उसी प्रकार होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है ।
केवल मनुष्य जन्म लेने से ही कोई बुद्धिमान नहीं हो जाता । उसके लिए शिक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है । शक्ल – सूरत , आकार – प्रकार तो सभी मनुष्यों का एक जैसा होता है , अंतर केवल उनकी विद्वत्ता से ही प्रकट होता है । जिस प्रकार सफेद बगुला सफेद हंसों में बैठकर हंस नहीं बन सकता , उसी प्रकार अशिक्षित व्यक्ति शिक्षित व्यक्तियों के बीच में बैठकर शोभा नहीं पा सकता । इसलिए माता – पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें , जिससे वे समाज की शोभा बन सकें ।
लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः ।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् ।।
लाड़ – दुलार से पुत्रों में बहुत से दोष उत्पन्न हो जाते हैं । उनकी ताड़ना करने से अर्थात दंड देने से उनमें गुणों का विकास होता है , इसलिए पुत्रों और शिष्यों को अधिक लाड़ – दुलार नहीं करना चाहिए , उनकी ताड़ना करते रहनी चाहिए । यह ठीक है कि बच्चों को लाड़ – प्यार करना चाहिए , किंतु अधिक लाड़ – प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं । माता – पिता का ध्यान प्रेमवश उन दोषों की ओर नहीं जाता । इसलिए बच्चे यदि कोई गलत काम करते हैं तो उन्हें पहले ही समझा – बुझाकर उस गलत काम से दूर रखने का प्रयत्न करना चाहिए । बच्चे के द्वारा गलत काम करने पर , उसे नजरअंदाज करके लाड़ – प्यार करना उचित नहीं । बच्चे को डांटना भी चाहिए । किए गए अपराध के लिए दंडित भी करना चाहिए ताकि उसे सही – गलत की समझ आए ।
श्लोकेन वा तदर्धेन पादेनकाक्षरेण वा ।
अबन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दानाध्ययन कर्मभिः ।।
व्यक्ति को एक वेदमंत्र का अध्ययन , चिंतन अथवा मनन करना चाहिए । यदि वह पूरे मंत्र का चिंतन – मनन नहीं कर सकता तो उसके आधे अथवा उसके एक भाग का और यदि एक भाग का भी नहीं तो एक अक्षर का ही प्रतिदिन अध्ययन करे , ऐसा नीतिशास्त्र का आदेश है । अपने दिन को व्यर्थ न जाने दें । अध्ययन आदि अच्छे कार्यों को करते हुए अपने दिन को सार्थक बनाने का प्रयत्न करें ।
चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य जन्म बड़े भाग्य से मिलता है , इसलिए उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए – व्यक्ति को चाहिए कि वह अपना समय , अपना दिन वेदादि शास्त्रों के अध्ययन में ही बिताए तथा उसके साथ – साथ दान आदि अच्छे कार्य भी करे । महान पुरुषों की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा गया है — ‘ व्यसनं श्रुतौ ‘ अर्थात् श्रेष्ठ ग्रंथों का अध्ययन करना उनका व्यसन होता है ।
कान्तावियोगः स्वजनापमानः ऋणस्य शेषः कुनृपस्य सेवा ।
दरिद्रभावो विषमा सभा च विनाग्निनैते प्रदहन्ति कायम् ।।
पत्नी का बिछुड़ना , अपने बंधु – बांधवों से अपमानित होना , कर्ज चढ़े रहना , दुष्ट अथवा बुरे मालिक की सेवा में रहना , निर्धन बने रहना , दुष्ट लोगों और स्वार्थियों की सभा अथवा समाज में रहना , ये सब ऐसी बातें हैं , जो बिना अग्नि के शरीर को हर समय जलाती रहती हैं
। सज्जन लोग अपनी पत्नी के वियोग को सहन नहीं कर सकते । यदि उनके अपने भाई – बन्धु उनका अपमान अथवा निरादर करते हैं तो वह उसे भी नहीं भुला सकते । जो व्यक्ति कर्जे से दबा है , उसे हर समय कर्ज न उतार पाने का दुख रहता है ।
दुष्ट राजा अथवा मालिक की सेवा में रहने वाला नौकर भी हर समय दुखी रहता है । निर्धनता तो ऐसा अभिशाप है , जिसे मनुष्य सोते और उठते – बैठते कभी नहीं भुला पाता । उसे अपने स्वजनों और समाज में बार – बार अपमानित होना पड़ता है । अपमान का कष्ट मृत्यु के समान है । ये सब बातें ऐसी हैं , जिनसे बिना आग के ही व्यक्ति अंदर – ही – अंदर जलता रहता है । जीते – जी चिता का अनुभव करने की स्थिति है यह ।
नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहेषु कामिनी ।
मन्त्रिहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम् ।।
जो वृक्ष बिलकुल नदी के किनारे पैदा होते हैं , जो स्त्री दूसरों के घर में रहती है और जिस राजा के मंत्री अच्छे नहीं होते वे जल्दी ही नष्ट हो जाते हैं , इसमें कोई संशय नहीं है । नदी के किनारे के वृक्षों का जीवन कितने दिन का हो सकता है , यह कोई नहीं कह सकता , क्योंकि बाढ़ तथा तूफान के समय नदियां अपने किनारे के पेड़ों को ही क्या , अपने आसपास की फसलों और बस्तियों को भी उजाड़ देती हैं । इसी प्रकार दूसरे घरों में रहने वाली स्त्री कब तक अपने आपको बचा सकती है ? जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते , वह कब तक अपने राज्य की रक्षा कर सकता है ? अर्थात ये सब निश्चयपूर्वक जल्दी ही नष्ट हो जाते हैं
। बलं विद्या च विप्राणां राज्ञां सैन्यं बलं तथा ।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां परिचर्यकम् ।।
ब्राह्मणों का बल विद्या है , राजाओं का बल उनकी सेना , व्यापारियों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है । ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि विद्या ग्रहण करें । राजाओं का कर्तव्य यह है कि सैनिकों द्वारा वे अपने बल को बढ़ाते रहें । वैश्यों को चाहिए कि वे पशु – पालन और व्यापार द्वारा धन बढ़ाएं , शूद्रों का बल सेवा है । चाणक्य ने इस श्लोक में चारों वर्गों के कर्तव्यों की ओर संकेत किया है । उनके अनुसार – चारों वर्गों को अपने – अपने कार्यों में निपुण होना चाहिए ।
समाज में किसी की स्थिति कम नहीं है । समय के अनुसार परिस्थितियां बदलती हैं , संभवत : किसी समय जन्म के अनुसार चारों वर्ण माने जाते रहे हों , परंतु तथ्य यह है कि वर्णों की मान्यता कार्यों पर निर्भर करती है । इसलिए किसी भी कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति शिक्षा के क्षेत्र में है , तो उसे ब्राह्मण ही माना जाएगा ।
जो व्यक्ति व्यापार करता है , कृषि कार्य में लगा है , पशु – पालन करता है , उसे वैश्य माना जाएगा । जो सेना में भर्ती हैं अथवा सेना से संबंधित कार्य कर रहा है , उसे क्षत्रिय कहा जाएगा । शेष व्यक्ति शूद्रों की श्रेणी में आते हैं । शूद्र भी शिक्षित हो सकता है । परंतु किसी भी वर्ण में पैदा हुआ व्यक्ति , जो लोगों की सेवा के कार्य में लगा है , उसे शूद्र माना जाएगा – शूद्र का अर्थ नीच नहीं है । आज्ञापालन की भावना शूद्र का विशेष गुण है । प्रायः इस श्रेणी के लोग मानसिक रूप से संतुष्ट होते हैं
। निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत् ।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाऽभ्यागता गृहम् ।।
वेश्या निर्धन पुरुष को , प्रजा पराजित राजा को , पक्षी फलहीन वृक्षों को और अचानक आया हुआ अतिथि भोजन करने के बाद घर को त्यागकर चले जाते हैं । आचार्य ने यहां संबंधों की सार्थकता की ओर संकेत किया है । कोई तभी तक संबंध रखता है , जब तक उसके स्वार्थ की पूर्ति होती है । वेश्या का धंधा परपुरुषों से धन लूटना होता है । धन के समाप्त होने पर वह मुंह मोड़ लेती है । प्रजा प्रतापी राजा को ही सम्मान देती है । जब वह शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा राजा का साथ छोड़ देती है । इसी प्रकार प्रकृति के सामान्य नियम के अनुसार – वृक्षों पर रहने वाले पक्षी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं , जब तक वहां से उन्हें छाया और फल प्राप्त होते रहते हैं । घर में अचानक आने वाले अतिथि का जब भोजन – पान आदि से स्वागत – सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी सामाजिक नियम के अनुसार विदा लेकर अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ता है । भाव यह है कि व्यक्ति को अपने सम्मान की रक्षा का स्वयं ध्यान रखना चाहिए । उसे अपेक्षा करते समय संबंधों के स्वरूप को सही प्रकार से समझना चाहिए । किसी स्थान , व्यक्ति या वस्तु से आवश्यकता से अधिक लगाव नहीं रखना चाहिए ।
गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम् ।
प्राप्तविद्या गुरुं शिष्या दग्धाऽरण्यं मृगास्तथा ।।
ब्राह्मण दक्षिणा प्राप्त करने के बाद यजमान का घर छोड़ देते हैं , विद्या प्राप्त करने के बाद शिष्य गुरु के आश्रम से विदा ले लेता है , वन में आग लग जाने पर वहां रहने वाले हिरण आदि पशु उस जंगल को छोड़कर किसी दूसरे जंगल की ओर चल देते हैं ।
यह श्लोक भी उसी बात की पुष्टि करता है , जिसे पहले कहा गया है । यदि कोई व्यक्ति किसी विशेष कार्य के कारण किसी के पास जाता है , तो अपना कार्य सिद्ध हो जाने पर उसे वह स्थान छोड़ देना चाहिए , जिस प्रकार ब्राह्मण लोग यजमान के किसी कार्य की पूर्ति के बाद दक्षिणा प्राप्त हो जाने पर आशीर्वाद देकर वहां से चले जाते हैं ।
शिष्य भी विद्या की प्राप्ति के बाद गुरुकुल छोड़कर अपने – अपने घर चले जाते हैं । जब किसी जंगल में आग लग जाती है तो वहां रहने वाले पशु भी उस जंगल को छोड़कर किसी दूसरे जंगल की खोज में चल पड़ते हैं अर्थात व्यक्ति को अपना कार्य समाप्त हो जाने पर किसी के यहां डेरा डालने की मंशा नहीं करनी चाहिए ।
दुराचारी दुरदृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः ।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्रं विनश्यति ।।
बुरे चरित्र वाले , अकारण दूसरे को हानि पहुंचाने वाले तथा गंदे स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है , वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है ।
सभी साधु – संतों , ऋषि – मुनियों का कहना है कि दुर्जन का संग नरक में वास करने के समान होता है , इसलिए मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके , दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे ।
आचार्य ने यहां यह भी संकेत किया है कि मित्रता करते समय यह भली प्रकार से जांच – परख लेना चाहिए कि जिससे मित्रता की जा रही है , उसमें ये दोष तो नहीं हैं । यदि ऐसा है , तो उससे होने वाली हानि से बच पाना संभव नहीं । इसलिए ज्यादा अच्छा है कि उससे दूर ही रहा जाए ।
समाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते ।
वाणिज्यं व्यवहारेषु दिव्या स्त्री शोभते गृहे ।।
प्रेम व्यवहार बराबरी वाले व्यक्तियों में ही ठीक रहता है । यदि नौकरी करनी ही हो तो राजा की नौकरी करनी चाहिए । कार्य अथवा व्यवसाय में सबसे अच्छा काम व्यापार करना है । इसी प्रकार उत्तम गुणों वाली स्त्री की शोभा घर में ही है ।
अपनी बराबरी वाले व्यक्ति से प्रेम – संबंध शोभा देता है । असमानता सामने आए बिना नहीं रहती , तब प्रेम शत्रुता में बदल जाता है । इसलिए क्यों न पहले ही ध्यान रखा जाए । इसी प्रकार यदि व्यक्ति को नौकरी तथा किसी सेवा कार्य में जाना है तो उसे प्रयत्न करना चाहिए कि सरकारी सेवा प्राप्त क्योंकि उसमें एक बार प्रवेश करने पर अवकाश प्राप्त होने तक किसी विशेष प्रकार का झंझट नहीं रहता ।
फिर वह निर्दिष्ट नियमों से संचालित होता है , न कि किसी व्यक्ति विशेष के आदेशों से । यदि अन्य कार्य करना पड़े तो व्यक्ति अपना ही कोई रुचि का व्यापार करे । से घर की शोभा है और घर में अपनी मर्यादाओं और कर्तव्यों का पालन करते हुए स्त्री भी अपने सद्गुणों की रक्षा कर सकती है ।
अध्याय का सार
इस अध्याय के प्रारंभ में ही स्त्रियों की ओर ध्यान दिलाया गया है । देखा जाए तो दोष तो सभी में होता है । कुछ के पास अनेक पदार्थ होते हैं , परंतु वे या तो उनका उपभोग नहीं जानते अथवा फिर उनमें उपभोग की शक्ति नहीं होती ।
इस अध्याय में यह भी बताया गया है कि कौन – सा परिवार सुखी रहता है । सुख उसी परिवार को प्राप्त होता है , जहां सब एक दूसरे का सम्मान करते हैं , एक – दूसरे में श्रद्धा रखते हैं अर्थात पुत्र को पिता और पिता को पुत्र का ध्यान रखना चाहिए ।
यह संसार बड़ा विचित्र है । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं , जो सामने तो मीठी बातें करते हैं , परंतु पीठ पीछे बुराइयां करते हैं । ऐसे लोगों से बचना चाहिए । चाणक्य तो यहां तक कहते हैं कि मन से सोची हुई बात का वाणी से भी उल्लेख नहीं करना चाहिए अर्थात अपना रहस्य अपने मित्र को भी नहीं बताना चाहिए ।
मूर्खता तो कष्टदायक होती ही है , जवानी और दूसरे के घर में आश्रित होकर रहना भी भारी दुख देने वाला होता है । उसके साथ यह भी ध्यान में कि श्रेष्ठ और उत्तम वस्तुएं तथा सज्जन लोग सब स्थानों पर प्राप्त नहीं होते ।
चाणक्य ने बार – बार इस बात पर जोर दिया है कि माता – पिता को चाहिए कि वे अपनी संतान को गुणवान बनाएं , उनका ध्यान रखें और उन्हें बिगड़ने न दें । आचार्य कहते हैं कि व्यक्ति को चाहिए कि वह अपना समय सार्थक बनाए , अच्छा कार्य करे । इसके साथ उनका कहना है कि सब लोगों को अपना कार्य अर्थात कर्तव्य पूरा करना चाहिए ।